Monday, February 16, 2015

My Tryst With Nature !

कई नज़्म थे नब्ज़ में कब से क़ैद, 
कभी उन्हें दिल में दबाया,
कभी डायरी के पन्नों  में छुपाया |
उनमें नज़्म कुछ, लब्ज़ पर लाना चाहता हूँ आज,
आख़िर इंक़लाब का आरम्भ तोह खुद से ही होता है ||

1. उड़ान  


पतझड़ की एक शाम, मैं बैठा-बैठा ये सोच रहा था  -

जो टूटकर बिखरे हैं पत्ते, उड़ान तो वो ही भर पाते हैं ;
जो शाखाओ से जुड़े हैं अब भी, वो सिर्फ उसी जगह इठलाते हैं |
उस पत्ते के तरह पतझड़ में,
कभी जो तू सुख कर सिमटने लगे,
या कभी जो तू टूटकर बिखरने लगे,
याद रखना! जिंदगी तो तेरी अब शुरू हुई हैं,
उड़ान भरने का वक़्त आ चुका है |
कुछ कर-गुज़रने का वक़्त आ चुका है ||

2. पुकार


एक सवेरे सागर-किनारे, मैं ये बैठा-बैठा सोच रहा था -

ऊपर निचे, उथल-पुथल कर, 
मानो खुद से दौड़ लगाती थी |
ज्वार-भाटा सरसराते, टकराते, लहराते,
आगे बढ़ती जाती थी |
हुंकार लगाकर, समुद्रे-मन में उफान लाकर,
बार-बार मेरे पास आकर,
मानो मुझसे कुछ कहना चाहती थी |
नयी रेथ की फर्श बनाकर,
मने-कोलाहल में नीरवता लाकर,
हर बार आत्मसंवरण खोकर, मेरे पास आकर,
मुझे कुछ यूँ छुकर जाती थी |
मानो मुझसे कुछ कहना चाहती थी ||


3. मंज़िल


एक कोहरी निशा में, ओस की बूंदो के बीच, बैठा-बैठा सोच रहा था -

इस घने कोहरे से ना जाने ये कैसा लगाव हो चला है,
ना आंसू छुपाने पड़ते हैं,
ना हँसी दिखानी पड़ती है |
सब धुँधला-धुँधला सा,
खामोशी की चादर में लिपटा,
फिर भी एक रौशनी का सुराग ही काफी होता है,
मंज़िल दिखाने के लिए |
हां, एक रौशनी का सुराग ही काफी होता है,
मंज़िल तक पोहोचाने के लिए ||

4. मुहब्बत


मेह पर एक रोज़ शायरी पढ़ते हुए, मैं बैठा-बैठा ये सोच रहा था -

बारिश तोह महत्ता जताती है,
बेवक़्त आती है, बेवक़्त थम जाती है,
सूरज लेकिन जलता रहता है,
चाँद को भी उसकी चांदनी देता है |
बावजूद इसके, शायर चाँद और बारिश में ही,
छेड़ता है प्यार का हर नगमा |
क्या हो अगर सूरज भी मेह का अपनाले रुख,
या हो जाए शायर के उस चाँद से ख़फ़ा?
क्या प्यार वो नहीं जो प्रतिष्ठा न जताए?
क्या प्यार वो नहीं जो दे हर मोड़ पर वफ़ा?

  एक दिन मैं बैठा-बैठा बस, यूँही सोच रहा था || 

2 comments:

  1. आख़िर इंक़लाब का आरम्भ तोह खुद से ही होता है || Very nice :)

    ReplyDelete